Beeke Nahin Alfaz

I have never written in Hindi before, but a heart-to-heart conversation with a fellow struggling author set something in motion. Before I knew it, one thing led to another, and this was born.

बिके नहीं अल्फ़ाज़”

लिखने की शुरुआत तो एक ख्वाब से हुई,
जब दिल में कोई अधूरी बात रह गई थी।
कलम उठाई, कागज़ से दोस्ती कर ली,
और फिर ज़िंदगी से थोड़ी बेरुख़ी कर ली।

“हर लफ़्ज़ में अपनी रूह पिरो दी मैंने,
पर बाज़ार में रूह का कोई दाम नहीं था।”

पहली किताब छपी — नाम था सपनों की स्याही’
दोस्तों ने कहा, “भाई, तू तो लेखक बन गया!”
मैंने भी मुस्कराकर कहा, “हाँ, शायद…”
पर मुस्कान के पीछे छुपा था ‘कितनी कॉपी बिकी?’ का सवाल।

“दुकानों पर ढूँढता रहा अपना नाम,
पर रैक खाली था, जैसे किसी ने पुकारा ही न हो।”

पाठक मिले — दो, तीन, या शायद चार,
वो भी रिश्तेदार या हमदर्द यार।
पर दिल को चैन था, क्योंकि शब्दों की भूख अब भी जिंदा थी।

“शौक़ से लिखा था, शोहरत के लिए नहीं,
मगर कभी-कभी दिल शोहरत से भी गिला करता है।”

अब भी हर शाम वही कॉफ़ी, वही नोटबुक,
कुछ अधूरे ख्याल, कुछ बुझते हुए शेर।
कभी सोचता हूँ —
क्या किताबें बिकती हैं, या सिर्फ़ उम्मीदें?

“लेखक हूँ, सौदागर नहीं,
मेरी कमाई वो सुकून है जो लिखते वक़्त मिलता है।”

और फिर एक रात, जब किसी अजनबी ने लिखा —
“आपकी कहानी ने मेरी नींद उड़ा दी।”
तो लगा, शायद बस इतनी ही ‘बिक्री’ काफ़ी थी।

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